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Saturday, July 20, 2019

बरगद | Bargad


बरगद | Bargad


वो गर्मी का महीना और वो बचपन के अठखेली,
उसके दामन की वो छांव जहां धूप का नाम भी नही,
उसकी डेहरी पर फिसलना, गिरना और फिर चढ़ना,
वो बड़ा, एक पुराना पेड़ ही तो था?
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।


वो जून के महीने में साथी-संगी सहित तारकोल भरी छत पर चढ़ जाना,
वो मीठी-खट्टी गूलर जो मुझे आम के अचार सी लगती थीं,
गुलरों के कीड़े जिन्हें देख हम घिनाते थे और भाग जाते थे,
वो गूलर उसी बरगद की तो थीं,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

मानसून की वो भीषण बारिश, घर मे जब बाढ़ सी आ जाती थी,
पूरा मोहल्ला मुझे समुंदर और वो पेड़ टापू सा लगता था,
दुनिया तर, और अचरज उसकी घनी छांव में पानी की एक बूंद भी नही,
हाँ, बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

वो वटसावित्री, वो आम और वो पीला धागा,
माँ ना जाने क्यों वो पीला धागा उसकी कलाई में राखी की तरह बांध देती थीं,
उसकी फैली जटाओं में लटकना और गगन छूकर लौट आना, सब याद है मुझे,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

वो बड़े भाई की भूत की कहानी और हम सबका डर से चादर में छिप जाना,
चाचा का 'कुम्भकर्ण था अति महाबली' सुनाना और शाम को पॉपिंस लाना,
'वो चंद्रकांता , वो क्रूरसिंह ' का नाट्य रूपांतरण,
बाबा की तस्वीर, दादी का प्यार और माँ-बाप का दुलार,
सब उस पुराने पेड़ के साये में ही तो था,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

अब वीरान है सब, ना वो मोहल्ला है, ना वो घर ही रहे,
केवल खरपतवार, जंगल और बियाबान है अब सब,
उस खामोशी में भी एक साधु एक त्यागी लीन रहता है,
वो शायद कुछ ना कहकर भी हज़ारों कहानियां कहता है,
हाँ मुझे अब मालूम है, वो बरगद क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।।


@हमारी तरफ से उस विशाल पुराने बरगद के वृक्ष को समर्पित, जिसके साये में हमारा बचपन खिला खेला है।

"ओउ्म् वट वृक्षाय नमः"


-विव




@Viv Amazing Life

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