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Sunday, August 30, 2020

Kam Gaurav Ki Baat Nahin | कम गौरव की बात नहीं

11:12 PM 2




Kam Gaurav Ki Baat Nahin | कम गौरव की बात नहीं


गिरि हिला, सिंधु संग नभ काँपा
भयभीत हुयी धरणी उस दिन
निर्भय, निश्चल, मुस्काता सा
वो पंथी चला, कुछ अविरल हो
यह कम गौरव की बात नहीं ।

भीषण विप्लव औ' अंधकार
भयलीन शशि, खद्योत का क्षय निश्चित
निर्भीक, निडर, गुर्राता सा
वो पंथी  चला, निज दिनकर बन
यह कम गौरव की बात नहीं ।

विधि क्रम से जो दीन हीन
धूल धूसरित वस्त्र उसके मलिन
कृषक, सृष्टा का सहभागी
वो पंथी चला, कुछ अर्पण कर
यह कम गौरव की बात नहीं ।।

--विव


Sunday, August 23, 2020

प्रेम | Prem

10:29 PM 1

 



प्रेम | Prem


प्राणप्रिये तुम हो दीपक तम को हरने तुम आयी हो,
इस काल ग्रसित व्यथित मन मे उजियारा करने आयी हो।

तुम राधा सी निश्छल काया मुझमे कृष्ण सा प्रेम भरा,
इस गीत रहित, निर्जीव अधर को मुरलीधर करने आयी हो।

तुम चिर वर्षा मैं चातक पर मेघों का आभाव यहाँ,
इक आशा, इस दुर्गम मरुथल पर बदरी बन कर छायी हो।

तुम द्रवित नीर मैं प्यासा पर कठुर घाम में ठोर कहाँ,
इस निठुर, खलित अकाल में टूटी गागर भरने आयी हो।

प्राणप्रिये तुम हो दीपक तम को हरने तुम आयी हो,
इस काल ग्रसित व्यथित मन मे उजियारा करने आयी हो।।


--विव

लेखक का उद्गार | Lekhak Ka Udgar

10:00 PM 0




लेखक का उद्गार | Lekhak Ka Udgar


कैसे लेखक, अद्भुत आलय
जब शब्द नहीं पूजे जाते
ना वीणा की धुन नही पल्लव के स्वर
विक्षत दारुण अट्टहास प्रबल।

चेतना शून्य विकृत लेखन
पाषाण हृदय पाठक सबल
कल्पित दुर्गम इस मरुथल पर
नागफनी पोषित निर्जल।

झर झर सरिता से अश्रु बहे
कालजयी खुद कालग्रस्त
अस्तित्व का है महा समर
नही क्षण भंगुर केवल।।

--विव

प्रेम अब निश्चित नही है | Prem Ab Nischit nahi hai

 



प्रेम अब निश्चित नही है | Prem Ab Nischit nahi hai


प्रिये निश्चिन्त हो कर जग बसाओ
किंचित ना बूझो ये कहानी
अंतिम विनय है भूल जाओ
प्रेम अब निश्चित नही है।

पाषाण हृदय रोता नही है
क्यों खड़ी संशय में हो
ना संकोच खाओ, भूल जाओ
प्रेम अब निश्चित नही है।

पत्र जो तुमने लिखे थे
कर दिये अग्नि समर्पित
होम उनका हो गया, भूल जाओ
प्रेम अब निश्चित नही है।

बंधन मुक्त कर दिया है
क्यों फंसी मझधार में हो?
यूँ ना ग्लानि बोध खाओ, भूल जाओ
प्रेम अब निश्चित नही है।।

--विव

पथिक तुम्हे अब बढ़ना होगा | Pathik Tumhe Ab Badhna Hoga



पथिक तुम्हे अब बढ़ना होगा | Pathik Tumhe Ab Badhna Hoga


डगर कठिन हो कठिन चुनौती 
ही चाहे गिर गिर जाये
साहस रख कर चलना होगा
पथिक तुम्हे अब बढ़ना होगा।

शूल चुभें हो इति भाल से हानि
घात चाहे शीश पे आये
हिम्मत रख कर लड़ना होगा
पथिक तुम्हे अब बढ़ना होगा।

घोर प्रलय हो दिनकर छिप जाये
जीवन मरण चक्र रुक जाये
संकट है कुछ करना होगा
पथिक तुम्हे अब बढ़ना होगा।

मृत्यु अटल हो प्रेम भी विलोप हो जाये
चेतना शून्य मनुज से पूछो
अवसान हेतु क्या करना होगा
पथिक तुम्हे अब बढ़ना होगा।।


--विव

नन्हा बच्चा | Nanha Bachcha





नन्हा बच्चा | Nanha Bachcha

आज भी मेरे अन्तर्मन में,
एक छोटा बच्चा रहता है,

वो खिलखिलाक़े हँसता है,
और सूरज से आंख लड़ाता है,

वो हवा से रेस लगाता है,
कभी लहरों सा बलखाता है,

वो आसमान में उड़ता है,
कभी भाई बहन से लड़ता है,

आइसक्रीम के लिए मन अब भी ललचाता है,
माँ की एक आवाज़ पे वो भागा-भागा जाता है,

आज भी मेरे अन्तर्मन में ,
एक नन्हा बच्चा रहता है।।

क्षमाप्रार्थी | Kshamaprarthi





 क्षमाप्रार्थी | Kshamaprarthi

बिना वजह अब तुमसे मैं संवेदना नही दिखाऊंगी,
सच तो यह है कि तुमको मैं लाचार देख न पाऊंगी
अब समय आ गया है जब तुमको सम्मान से जीना सिखाऊंगी,
क्षमाप्रार्थी हूँ पर मैं बुढ़ापे की लाठी ना बन पाऊंगी।

एक धूमिल सी स्मृति है जब मैं उंगली थामे चलती थी,
फिर हाथ छोड़कर भी तुमने, मुझ मे विश्वास दिखाया था,
समय आ गया है जब दूर खड़ी होकर, तुममें भरोसा वही जगाऊंगी,
क्षमाप्रार्थी हूँ पर मैं बुढ़ापे की लाठी ना बन पाऊंगी।

याद है अब भी जब तुमने रंग कई दिखलाये थे,
फिर एक दिन तुमने साथ बैठकर उनका मोल बताया था,
समय आ गया है जब मैं तुमको जीवन के रंग नए दिखाऊंगी,
क्षमाप्रार्थी हूँ पर मैं बुढ़ापे की लाठी ना बन पाऊंगी।

हल्का सा कुछ याद है मुझको जब तुमने मेरे आंसू पोछे थे,
फिर एक दिन तुमने मेरा कठिनाई से द्वंद कराया था,
समय है वो जब मैं तुमको मुश्किल में हंसना सिखाऊंगी,
क्षमाप्रार्थी हूँ पर मैं बुढ़ापे की लाठी ना बन पाऊंगी।

धुंधला सा स्मरण है जब मेरा खुद से विश्वास डगमगाया था,
तब तुमने मेरा हाथ पकड़कर थोड़ा सा हड़काया था,
अब वक्त आ गया है, तुमको वैसे ही हड़काऊंगी,
क्षमाप्रार्थी हूँ पर मैं बुढ़ापे की लाठी ना बन पाऊंगी।

गलत समझना ना तुम मुझको , मैं कुछ ऐसा कर जाऊंगी,
बूढ़े हो कमज़ोर नहीं, तुमको यह एहसास कराऊंगी,
जब तुम होगे एकाकी पथ पर, नेपथ्य से साथ निभाऊंगी
क्षमाप्रार्थी हूँ पर मैं बुढ़ापे की लाठी ना बन पाऊंगी।


कोख | Kokh





कोख | Kokh


देखो न माँ आज खुशियों ने कुंडी सी खटकाई है,
तुझसे मिलने दूर देश से नन्ही परी एक आई है,
मैंने सोचा मुझसे मिलकर तुम बहुत अधिक हर्षाओगी,
मुझको अपनी गोद मे पाकर फूली नही समाओगी।

मैंने सोचा तुमसे मिलकर मैं तुमको थोड़ा सा सताऊंगी,
और कभी फिर तुमसे छिपकर दूध मलाई खाऊँगी,
जब मुझको डाटोगी तुम तब रूठूँगी इतराउंगी,
फिर चुपके से तुमसे लिपटकर तुम संग मैं सो जाउंगी।

पापा के संग मैं भी एक दिन सब्जी मंडी जाउंगी,
और वहां से झोला भरकर सेब संतरे लाऊंगी,
झोला फटा देखकर मेरा उनको गुस्सा आएगा,
मीठी सी मुस्कान बिखेर तब उनको मैं मनाऊंगी।

पर माँ पापा अब मामला इससे  इतर कुछ लगता है,
बेटी हूँ मैं तेरी पर मुझको तुमसे डर कुछ लगता है,
आज लड़की होने की कीमत फ़िर शायद मैं चुकाउंगी,
क्या एक बार फिर कोख में ही मारी जाउंगी ??

आखिर क्यों | Akhir Kyon



 

आखिर क्यों | Akhir Kyon


आखिर क्यों मैं इतना निर्लज्ज हुआ,
जो उनका प्यार भुला बैठा,
जिनकी उंगलियां पकड़ कर चलना सीखा,
लाठी मैं उनको थमा बैठा।

वो कल की ही तो बातें थी,
जब तुम मुझे खिलाकर खाते थे,
ज़िम्मेदारियों का बहाना देकर ,
तुम्हारा अथाह स्नेह भुला बैठा।

वो कल की ही तो बातें थी,
जब तुम हर सांझ मेरी राह जोहते थे,
परवाह को बंदिश समझ कर मैं,
तुमको अपशब्द सुना बैठा।

वो कल की ही तो बातें थी,
जब तुम मेरी खातिर मिट्टी के घरौंदे बनाते थे,
तुम्हारा घर तोड़कर मैं,
तुमको वनवास पठा बैठा।

Saturday, July 27, 2019

शायर लिख सकता है चिंगारी | Shayar Likh Sakta Hai Chingari



शायर लिख सकता है चिंगारी | Shayar Likh Sakta Hai Chingari


गरीब बच्चे सिग्नल पर, वो रेलवे स्टेशन और क्या बस-अड्डे,
हमेशा मांगते फिरते, दुधमुहे, तुतलाते, अड़ियल, कुछ जिद्दी से,
तुम फेंकते चिल्लर, वो एक रुपया वो दो रुपिया, वो हर्ष और दान का सुख,
कभी रुक-कर सोंचा है उनका भी, किसके तनय हैं वो?
कहीं दूर उनकी माँ, वो माँ जिसका दूध भी शायद पुत्र-विरह में अब सूख चुका है,
फिर क्यों वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है?

वाह, इतनी शर्म, इतनी हया, और कितने संस्कारों से गुथे-बंधे हो तुम,
पर सोंचो, अगर इतनी अना से तुम बंधे होते, तो फ़िर क्या कोई निर्भया होती?
उस पर तुम्हारा छद्मवेश, जो तुम स्वार्थ हेतु दिन रात रचते हो,
यहाँ होता है, रोज़ जिंदगी से खिलवाड़, बलात्कार और उस पर कोठों पर बिकती अस्मतें,
फिर क्यों वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है?

वो बाढ़, वो सूखा और सड़ती फसलें, उम्मीदों का होम आंखों के सामने,
ख़्वाबों का टूटना, पाई-पाई को तरसना, फिर फांसी, हाय वो गरीब किसान,
छोड़ो, ये व्यर्थ बातें है, तुम्हे इनसे क्या? तुम्हे तो क्लब जाना है, अपना घर बनाना है, नई गाड़ी चलानी है,
तुम्हारा ये स्वार्थ, ये खुदगर्ज़ी, शायर को रुलाती है,
फिर क्यों वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है?

वो स्याह काला रंग, दहेज़ और बेटी का घर से विदा ना होना,
वो बाप की मजबूरी, माँ का दुःख और टूट कर बिखरती अनब्याही वधु,
मुख्तलिफ वो जाति का खेल, पाखंड और प्रेम के अपराध में अपने ही परिजनों की जान लेते तुम,
ये अद्धभुत रीतियों से भरा तुम्हारा आधुनिक समाज, इस-पर अंतहीन आडम्बर और खोखली बातें?
फिर क्यों वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है?

ये तुम्हारा धर्म, ये तुम्हारे लोग और उन-सब का प्यार भी तुम्हारे ही लिए,
पर जब रहते हैं सब यहाँ मिल-जुल कर, तो कौन जलाता है ये मंदिर, ये मस्ज़िद और ये गिरजाघर? ये जो सवाल है ना, ये सवाल तुम्हारे ही लिए है,
वो दंगों में जलते मासूम बच्चे, वो चीखती माएँ, फिर वो पुकार, हाँ उन्हीं विधवाओं की पुकार, जिनके अश्रु भी अब सूख चुके हैं,
विडंबना ये, की तुम्हे देने हैं जवाब, तुम जो इसका कारण हो, हाकिम हो और बने बैठे हो पैगम्बर?
फिर क्यों वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है?

ये दुःख ये पीड़ा, सब जानता है वो, फ़िर क्यों लिख नही सकता?
जब इतना भला है तो, क्यों गरीबों की आहों के लिए बिक नही सकता?
वो शांत है मौला उसे तुम शांत रहने दो, वो अंतर्विरोध, जलता दिल और उसका मानसिक द्वंद,
फ़िर उसकी रूह का कहना, की जलती आग में फेके वो अगर शब्दों की नई ज्वाला, तो आग भड़केगी, इसमें हुनर है क्या?
वो कहता है, वो रूठों को मिलाएगा, बुझे दीपक जलाएगा, अपने शब्दों से जलती राख में जल देगा, नए पौधे खिलायेगा,
वो शायर, जो लिख सकता है चिंगारी, मग़र वो प्यार लिखता है।।

--विव

Saturday, July 20, 2019

तुम काम करते हो | Tum Kam Karte Ho

11:48 PM 0


तुम काम करते हो | Tum Kam Karte Ho

 
ये जो गरीब की कटोरी में सिक्के उछाल कर खुशी बटोर लेते हो, ...
कभी समझा है दुख उसका? यही नियति है क्या उसकी?
'चिंतन हाय ये चिंतन', छोड़ो समय कहां, के तुम काम करते हो।
 
माँ बाप से उलझ कर बात ना करना, "मदर -फादर डे" पर प्यार 'फेसबुक' पे धरना,
यही सच है क्या? आडंबरों में भरे दिवालिया हो तुम?
पर तुम्हे चिन्ता कहां, तुम व्यस्त रहते हो, के तुम काम करते हो।
 
अपनी अहलिया* से शायद नाराज रहते हो,
खुद नही समझते कुछ भी और उसको समझाते हुए हर बात कहते हो,
कभी समझा है उसको भी, उसका दुख उसकी पीड़ा और वो अकेलापन?
छोड़ो तुम समय व्यर्थ ना करो, के तुम काम करते हो।
 
अपने ही बच्चों से अक्सर अदावत* में रहते हो,
वो अल्लढ़ता वो किलकारियां वो प्यार कहां गुम है सब?
केवल एकेडमिक्स बिन संस्कार तो कोई दिशा नही,
इस विघटन की भी तुम फिक्र ना करो, के तुम काम करते हो।
 
ये मोबाइल में प्रेम और व्हाट्सएप्प पर गुस्सा दिखाना,
ये ' स्लैंग, इमोजी और स्माइली ' का जमाना,
समय होने पे मिलकर दो बात ना करना, पर प्रदर्शन दुनिया को दिखाना,
हाय रे प्रेम, अगर इस प्रेम को मजनू ने समझा होता,
तो वो संभव ही तथागत हो गया होता,
छोड़ो इस पागलपन को, तुम खुश रहो, के तुम काम करते हो।
 
ये सोशल मीडिया पर 'व्यक्ति विशेष की भक्ति ', देश प्रेम और अदभूद साहस,
हिन्दू, मुस्लिम और जाति पर देश खूब बनाते और इसका विकास करते हो,
छोड़ो ये तो नवनिर्माण है, कैसा चिंतन केवल वंदन,
तुम निश्चिन्त रहो, सच है के तुम काम करते हो।
 
ये छद्मवेश*, ये अंतर्द्वंद और ये मानसिक पीड़ा,
दिवालियेपन में भी निश्चिन्त रहो, तुम्हे समय कहां,
तुम नही आराम करते हो, तुम सर्वदा काम करते हो।।
 
 
अहलिया*: धर्म पत्नी
अदावत*: लड़ाई झगड़ा
छद्मवेश*: बनावटी परिधान
 
 
--विव
 
 

खंडहर | Khandhar



खंडहर | Khandhar


उनसे पलभर में रूठना और फिर मान जाना,
जी भर मार-पिटाई और फिर तिरछी आंखें दिखाना,
भाई-बहन उफ़ मेरा बचपन और वो घर,
हाँ वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

माँ के हाथ की रोटी, वो लोरियाँ रात में जो हमको सुलाती थीं,
पापा का गुस्सा, तकरार और वो प्यार सब याद है मुझे,
माँ-बाप का कंधा और छोटा सा मैं,
मैं जो दशहरे की भीड़ में शायद सबसे ऊंचा हो जाता था,
चलो लौट चलें उस घर,
वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

वो मेरा पहला प्यार, एटलस साईकल और उसका मोहल्ला,
एक अल्लढ़, एक दीवाना, मैं एक बेवकूफ सा लड़का,
उसकी एक झलक के लिए मैं जो पलभर में धरा नाप देता था,
सब याद है मुझे, आँखें झुका कर उसका चल देना,
वो सादगी, वो शर्म जो कभी उसकी आँखों से मेरी आँखों मे भी उतर आया करती थी,
उसका घर मेरे घर के पास ही तो था,
मेरा घर, वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

मेरे दोस्त, मेरे यार वो सब थे मेरे हमसाये,
हम सब वहीं पले बढ़े, अगणित शरारतें, हम कितनी मार खाए,
वो फूहड़ ,वो गंवार , वो संगी-साथी जो जान थे मेरी,
आज वो दिन है कि वो पहचान में भी नही,
लौटा दो उन्हें, मेरे घर के पास ही तो रहते थे वो,
पर वो घर, हाँ वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।

अब ना बचपन है और ना भाई-बहन के साथ वो तकरार ही रही,
फूहड़ दोस्तों से रुक्सती तो उससे भी पुरानी है,
वो मासूम सी लड़की जो माशूक थी मेरी,
उससे कोई ताल्लूक तो नही पर अब वो उसी बचपन मे उलझे एक बच्चे की माँ है,
मेरे माँ-बाप, वो तो वही हैं, मैं ही उनसे दूर हूँ शायद,
और फिर मेरा वो घर, हाय वही घर जो अब खंडहर सा हो गया है।।


@हमारे पुराने अलीगंज के घर को समर्पित
घर संख्या: 296, अलीगंज, लोधी-रोड, नई दिल्ली-110003


-विव



बरगद | Bargad


बरगद | Bargad


वो गर्मी का महीना और वो बचपन के अठखेली,
उसके दामन की वो छांव जहां धूप का नाम भी नही,
उसकी डेहरी पर फिसलना, गिरना और फिर चढ़ना,
वो बड़ा, एक पुराना पेड़ ही तो था?
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।


वो जून के महीने में साथी-संगी सहित तारकोल भरी छत पर चढ़ जाना,
वो मीठी-खट्टी गूलर जो मुझे आम के अचार सी लगती थीं,
गुलरों के कीड़े जिन्हें देख हम घिनाते थे और भाग जाते थे,
वो गूलर उसी बरगद की तो थीं,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

मानसून की वो भीषण बारिश, घर मे जब बाढ़ सी आ जाती थी,
पूरा मोहल्ला मुझे समुंदर और वो पेड़ टापू सा लगता था,
दुनिया तर, और अचरज उसकी घनी छांव में पानी की एक बूंद भी नही,
हाँ, बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

वो वटसावित्री, वो आम और वो पीला धागा,
माँ ना जाने क्यों वो पीला धागा उसकी कलाई में राखी की तरह बांध देती थीं,
उसकी फैली जटाओं में लटकना और गगन छूकर लौट आना, सब याद है मुझे,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

वो बड़े भाई की भूत की कहानी और हम सबका डर से चादर में छिप जाना,
चाचा का 'कुम्भकर्ण था अति महाबली' सुनाना और शाम को पॉपिंस लाना,
'वो चंद्रकांता , वो क्रूरसिंह ' का नाट्य रूपांतरण,
बाबा की तस्वीर, दादी का प्यार और माँ-बाप का दुलार,
सब उस पुराने पेड़ के साये में ही तो था,
बरगद का वो पेड़ ना जाने क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।

अब वीरान है सब, ना वो मोहल्ला है, ना वो घर ही रहे,
केवल खरपतवार, जंगल और बियाबान है अब सब,
उस खामोशी में भी एक साधु एक त्यागी लीन रहता है,
वो शायद कुछ ना कहकर भी हज़ारों कहानियां कहता है,
हाँ मुझे अब मालूम है, वो बरगद क्यों मुझे मेरे अग्रज सा लगता था।।


@हमारी तरफ से उस विशाल पुराने बरगद के वृक्ष को समर्पित, जिसके साये में हमारा बचपन खिला खेला है।

"ओउ्म् वट वृक्षाय नमः"


-विव




सपना सा लगता है | Sapna Sa Lagta Hai


 सपना सा लगता है | Sapna Sa Lagta Hai


वो भाई की शादी और लखनऊ की गलियां,
शादी में रिसेप्शन पार्टी और पार्टी में शर्माती तुम,
तुमसे बात करने की कोशिश और हमारी जासूसी करते हमारे ही परिजन,
तुमसे मिलना, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

वो फेसबुक की चैट और चैट में घटों बातें करते हम,
वो शायरी, वो कविताएं , वो रचना सब तुम्हारे लिए ही तो थीं,
वो पहली फ़ोन में हुई बात, हंसते-हंसते कुछ ना कहना और वो चुप्पी,
वो फ़ोन कॉल, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

वो कौशाम्बी का पैसिफिक मॉल और उस मॉल में मैं,
मेरी आँखें कुछ खोई सी किसी को ढूंढती शायद,
एक परी का आना और फिर जैसे मेरी तलाश पूरी हो गयी हो,
हम मिले कुछ ऐसे जैसे तकदीरें उस जहान की , लिखी हों किसी ने इस जहान में,
उस परी से मिलना, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

छिप-छिप के मिलना और घर मे कुछ भी ना कहना,
वो प्यार, वो एहसास और मन मे बिछड़ जाने की वो शंका,
तुम तो मेरी ही थी, फिर जाने क्यों कमजोर पड़ता था, डरता था ये दिल,
वो डर, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

वो ई.डी.म. में मूवी और वो एडवेंचर आइलैंड की राइड्स,
वो लक्ष्मी नगर की बारिश और उस बारिश में भीगते तुम और मैं,
वो घर मे बात ना करने पर तकरार और आंखों में उतर आने वाला बहुत सा प्यार,
वो प्यार, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

वो तकल्लुफ़ में घिर कर तुम्हारी बात करना मम्मी-पापा से,
बड़ों का वो गुस्सा और क़ाबिल बेटे के नाक़ाबिल होने पर नाराज़गी,
परिवार को ना मना पाने की वो खीज वो झुंझलाहट और उसमे तिल-तिल मरता मैं,
वो तिल-तिल मरना, सपना तो नही पर सपना सा लगता है।

मेरा टूटता दिल और खुद को मार कर तुमसे वो 'ना' कहना,
सपनों के टूटने की आवाज नही होती, ख्वाइशों का मरना देखा है कभी?
तुम्हारी नम आंखें और कांपती आवाज मुझको अब भी याद है,
तुम्हारा कहना 'विवेक', सपना तो नही पर सपना सा लगता है।।


@और नही लिख सकता, उसको रुस्वा नही कर सकता, जहाँ रहे खुश रहे यही दुआ है मेरी।


--विव

बेहद आम सी लड़की | Behad Aam Si Ladki



बेहद आम सी लड़की | Behad Aam Si Ladki

 
वो जगना सर्द रातों में, फ़िर ठिठक कर तारों को तकना,
टपकना ओस का देहरी पर और सुबह मोती सा खिल जाना,
बला की कशमकश में यूँ कभी मैं याद करता था, क़भी वो याद आती थी,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

जनवरी का महीना और शहर का कोहरे में घुल जाना,
ना सूरज, ना रोशनी ही कोई, सिर्फ़ धुआं और धुएं में आती वो,
हूर तो नही ना ही वो कोई अप्सरा थी, पर मुझे अपनी सी लगती थी,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

मेरी आँखों का खुलना, सुबह की सैर और वो भी उसकी गली तक,
उसके घर की छत और नहा कर छत पे आती वो,
उसका मासूम सा चेहरा और उस पर झटकना गीले बालों को, उफ़्फ़,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

गंगा का किनारा और वो अस्सी की शाम,
आना उसका और वो घाट पर पूजा, ना बिंदी ,ना चूड़ी, ना पायल ही सही,
बिना श्रृंगार के भी वो, देवी ही लगती थी,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

वो उसका बाग़ में आना अपनी सहेलियों संग,
वो अठखेली, वो अल्लढ़पन और वो हुमक,
वो शाम का सहर होना आँखों ही आँखों मे,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

वो देखना मुझे पलभर को और फिर नजरअंदाज कर देना,
मैं पसंद था उसको, शायद ये वो खुद से छिपाती थी,
उसकी हया ये थी या घर की मजबूरियां, कुछ कह ना पाती थी,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।

इज़हार मुश्किल था पर एक दिन कर ही दिया मैंने,
गुस्से में दमकती वो, वो गाली वो थप्पड़ और रूठकर चले जाना,
मेरा दीवानापन और फ़िर उसका इकरार ना करना, सब याद है मुझे,
वो बेहद आम सी लड़की, मुझे कुछ ख़ास लगती थी।।


--विव


अधबुनी सी जिंदगी | Adbuni Si Zindagi



अधबुनी सी जिंदगी | Adbuni Si Zindagi


भरपूर प्रेम किया मुझे, जो बस में था दिया मुझे,
जो सही था वही किया, जो गलत था नही दिया,
क्यों व्यर्थ मै रूठा रहूँ, माँ-बाप से व्यथित हो छूटा रहूँ,
ये कुछ अनछुए सवाल हैं और अनछुई सी जिंदगी।

तब दोस्तों की भीड़ थी, और पत्थरों का खेल था,
अब पत्थरों की भीड़ में एक दोस्त की तलाश है,
जब दोस्त ही मिला नहीं, मैं दुश्मनी क्यों ठान लूँ,
ये कुछ अनमने सवाल हैं और अनमनी सी जिंदगी।

ना दिनभर लड़ते भाई-बहन, ना वो खिलखिलाता बचपन रहा,
माँ-दादी ने गढ़ा जो, अब वो टोपी, मोजे, स्वटेर कहाँ?
ना अब पापा की साइकिल, और ना नानी की गोद है,
ये बिखरे कुछ सवाल हैं और कुछ बिखरी सी जिंदगी।

ना स्नेह था ना प्यार था, उससे कहाँ इक़रार था,
वो किसी और का हो गया, एक ख्वाब था जो खो गया,
फ़िर ख्वाइशों की बात थी, और ख्वाईशें बदल गयीं,
ये कुछ अटपटे सवाल हैं और अटपटी सी जिंदगी।

जिन्हें मंज़िलों की आस थी, उनसे रास्ते नाराज़ थे,
मुझे रास्तों से प्यार था, मुझे मंजिलें मिलती रहीं,
मंजिलें तो खुद राह हैं, मंजिलों पर गुमान क्या,
ये गहरे कुछ सवाल हैं और कुछ ग़हरी सी जिंदगी।

प्यारा सा एक हमसफ़र, तक़दीर से मिला मुझे,
ख्वाबों से बढ़कर चाहतें और सपनों से प्यारा ये सफर,
जहाँ प्यार था अब दूरियाँ, क्यों दूरियों की तलब मुझे,
ये कुछ अनसुलझे सवाल हैं और अनसुलझी सी जिंदगी।

कुछ अनमना सा झाँकता, कुछ भागता कुछ दौड़ता,
मुझे जिस पल की तलाश थी, बेटे में मैंने जी लिया,
अब उछलूँ -कुदूँ, खेलूँ सदा, पर हाय अब समय कहाँ,
ये कुछ अधबुने सवाल हैं और मेरी अधबुनी सी जिंदगी।।

--विव

आँखों का पानी, अधूरी कहानी | Ankhon Ka Pani, Adhuri Kahani



आँखों का पानी, अधूरी कहानी | Ankhon Ka Pani, Adhuri Kahani


वो रिमझिम सी बूँदों का खिडक़ी पे आना,
नम मिट्टी की सोंधी महक का लुभाना,
उस बारिश में भींगी, सहमी एक दीवानी,
वो आँखों का पानी, अधूरी कहानी।

नज़ाकत से उसका वो कूचे पे आना, गले को झटक-कर झुल्फ़े गिराना,
क्यों शरीफ़ों की क़िस्मत में गिरना लिखा है?
प्यार की महक, हवा कुछ रूहानी,
फिर वो आँखों का पानी, अधूरी कहानी।

वो पागल सा लड़का जवानी में गुम था,
सपनें तो बड़े थे पर हौसलों से कम था,
इश्क़ में चाहतों की चढ़ी वो रवानी,
फिर वो आँखों का पानी, अधूरी कहानी।

वो आशिक़ की दुविधा, इज़हार की कोशिश,
मशक्क़त बड़ी थी, समझ की कमी थी,
पर मिलना था उनको, मिल ही गए वो,
फिर वो आँखों का पानी, अधूरी कहानी।

वो ज़माने में प्रेमियों का सरेआम मिलना,
चातक मिला हो, पहली बारिश से जैसे,
वो दिलकश थी बातें और गहरे थे वादे, उन्होंने किये थे,
फिर वो आँखों का पानी, अधूरी कहानी।

जगमगाते दिए फ़िर तूफानों की आहट,
घरों में गिरी हो एक बिजली सी जैसे, मगर अब तबाही की किसको फिकर है?
फ़िज़ा जानती है ये कहानी पुरानी,
वो आँखों का पानी, अधूरी कहानी।

वो विरह की पीड़ा, उसको खोने का दुख भी,
जैसे तन्हा भंवर में अटकती हों सांसें, भटकती जवानी,
वो भीगा सा आँचल, वो कटती कलाई,
फिर वो आँखों का पानी, अधूरी कहानी।।


--विव


@Viv Amazing Life

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