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Saturday, July 20, 2019

अधबुनी सी जिंदगी | Adbuni Si Zindagi



अधबुनी सी जिंदगी | Adbuni Si Zindagi


भरपूर प्रेम किया मुझे, जो बस में था दिया मुझे,
जो सही था वही किया, जो गलत था नही दिया,
क्यों व्यर्थ मै रूठा रहूँ, माँ-बाप से व्यथित हो छूटा रहूँ,
ये कुछ अनछुए सवाल हैं और अनछुई सी जिंदगी।

तब दोस्तों की भीड़ थी, और पत्थरों का खेल था,
अब पत्थरों की भीड़ में एक दोस्त की तलाश है,
जब दोस्त ही मिला नहीं, मैं दुश्मनी क्यों ठान लूँ,
ये कुछ अनमने सवाल हैं और अनमनी सी जिंदगी।

ना दिनभर लड़ते भाई-बहन, ना वो खिलखिलाता बचपन रहा,
माँ-दादी ने गढ़ा जो, अब वो टोपी, मोजे, स्वटेर कहाँ?
ना अब पापा की साइकिल, और ना नानी की गोद है,
ये बिखरे कुछ सवाल हैं और कुछ बिखरी सी जिंदगी।

ना स्नेह था ना प्यार था, उससे कहाँ इक़रार था,
वो किसी और का हो गया, एक ख्वाब था जो खो गया,
फ़िर ख्वाइशों की बात थी, और ख्वाईशें बदल गयीं,
ये कुछ अटपटे सवाल हैं और अटपटी सी जिंदगी।

जिन्हें मंज़िलों की आस थी, उनसे रास्ते नाराज़ थे,
मुझे रास्तों से प्यार था, मुझे मंजिलें मिलती रहीं,
मंजिलें तो खुद राह हैं, मंजिलों पर गुमान क्या,
ये गहरे कुछ सवाल हैं और कुछ ग़हरी सी जिंदगी।

प्यारा सा एक हमसफ़र, तक़दीर से मिला मुझे,
ख्वाबों से बढ़कर चाहतें और सपनों से प्यारा ये सफर,
जहाँ प्यार था अब दूरियाँ, क्यों दूरियों की तलब मुझे,
ये कुछ अनसुलझे सवाल हैं और अनसुलझी सी जिंदगी।

कुछ अनमना सा झाँकता, कुछ भागता कुछ दौड़ता,
मुझे जिस पल की तलाश थी, बेटे में मैंने जी लिया,
अब उछलूँ -कुदूँ, खेलूँ सदा, पर हाय अब समय कहाँ,
ये कुछ अधबुने सवाल हैं और मेरी अधबुनी सी जिंदगी।।

--विव

@Viv Amazing Life

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