।। अंतर्मन ।।
क्रुद्ध सूर्य की तप्त ज्वाल मैं
क्षुब्ध सिंधु की गहराई हूँ
विष्णु का मैं चक्र सुदर्शन
अंतर्मन की परछाई हूँ ।
दुःखी हृदय का दग्ध भाव मैं
पल-पल घिरती तन्हाई हूँ
निर्धन का मैं दारुण रुदन
अंतर्मन की रुसवाई हूँ ।
पूज्य शारदा की वीणा मैं
याद पिरोती पुरवाई हूँ
प्रेम पीयूष मैं करती क्रीड़ा
अंतर्मन की शहनाई हूँ ।
आदि जगत का परम समर मैं
शिशु भरे वो अँगड़ाई हूँ
कवि साधता मैं वो आख़र
अंतर्मन की चौपाई हूँ ।।
--विव
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